08 December 2009

उत्तर आधुनिक बनने चले हम क्या आधुनिक हो सके हैं

हम बात करते हैं उत्तर आधुनिकता की लेकिन क्या हम पूरी तरह आधुनिक भी हो सके हैं? हम सदियों पुराने कर्मकांड , रूढ़ियों और शोषण की परम्परा का सगर्व निर्वहन करते हुए गणेश जी को दूध पिला कर संतृप्त हो जाते हैं। हम बाबरी मस्जिद का विध्वंस अपने मध्ययुगीन बदले के लिए करते हैं, जिसके साक्ष्यों की सत्यता ही संदिग्ध है। हम मनुष्य की कीमत पर पशु की रक्षा का संकल्प लेते हैं, धर्म का जयकारा लगाते हैं हम स्त्रियों और दलितों को गुलाम बनाए रखते हुए थोड़ी -सी कृपा करना करना चाहते हैं। हम उन्हें दया का पात्र ही बने रहने देना चाहते हैं।


हम एक ऐसे लोकतान्त्रिक महादेश में निवास करते हैं, जहाँ सीना ठोंक कर अपने जनतांत्रिक होने का दम भरा जाता हैजनतंत्र की स्तुति करते-करते हम दूसरे धर्म के अनुयायियों तथा अपने धर्मं के कथित अन्त्यजों के साथ सामंतों सरीखा व्यवहार करते हैंअपनी सठियाई हुई आज़ादी का उत्सव मनाते हुए हम भूल जाते हैं कि हम अब तक गावों में बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं पहुंचा पाये हैंहम आज भी मानसिक तौर पर गुलाम बने हैंहम औपनिवेशिकता को ही जीते हुए अपने को आधुनिक समझते हैंअब हम मुक्त बाज़ार व्यवस्था में जी कर गलोबलाइज़ होने के अहंकार से ग्रस्त हैं जबकि हम लोकलाइज़ होने में भी शर्म महसूस करते हैं


दरअसल, हम किसी भी नयी यूरोपियन अवधारणा को तुरंत गपक और लपक लेने के आदी हैंउन्हें आधुनिक हुए काफी दिन हो गएअब उनके पूंजीवाद को नई अवधारणाओं के साथ ही साथ अपने विस्तार की नयी -नयी योजनायें चाहिएपूँजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद हैअब नव- साम्राज्यवाद रूप बदल कर हमारे सामने प्रस्तुत हैसंस्कृति हमेशा ही साम्राज्यवाद की परियोजना का हिस्सा रही हैसाम्राज्यवाद पहले बताता है कि हम सचमुच कितने पिछड़े हुए हैफ़िर वह हमारे इतिहास, हमारी भाषा को पिछड़ा बताता हैवह अपनी श्रेष्ठता के मिथक गढ़ता हैनव - साम्राज्यवाद इतिहास के अंत , विचारधारा के अंत और उपन्यास के अंत की घोषणाएं करता हैवह शब्द और अर्थ के अभिन्न होने का खंडन करता हैकुल मिलाकर यह जो उत्तर - आधुनिकता है यह साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक तर्क हैइसीलिये उत्तर - आधुनिकता को व्याख्यायित कर पाने की चतुराई अथवा विवशता इसे ब्रह्म की तरह अबूझ बना देती है

हिन्दी में धडाधड उत्तर- आधुनिकता पर किताबें लिखी जाने लगीं जो और भी अबूझ रही हैंतुरत - फुरत उत्तर - आधुनिक उपन्यास लिखे जाने लगेबने - बनाए फोर्मुले पर लेखन आधारित हो कर महान होने लगाबेचारा हिन्दी का पाठक गैर आधुनिक स्थितियों में रह कर उत्तर - आधुनिक बनने के लिए अभिशप्त अपना सर पीट रहा है

26 November 2009

दो जूते



ये एक जोड़ी जूते थे,
अपने वतन की
मिट्टी से सने हुए,
और अंखुआए हुए
आक्रोश की तरफ से
तने हुए,
जो उपज रहा था
दुनिया के सबसे ताकतवर
आदमी के खिलाफ ।

ये सिर्फ एक जोड़ी जूते थे,
तमाम नंगे पांवों की
बारूद पर चलने की
बेबसी के खिलाफ ।

ये सिर्फ एक जोड़ी जूते थे,
अल-असगर
और कर्बला को याद करते हुए
एक आवाज थी इन जूतों की
जिनमें मक्का बोलता था
जिनमें बगदाद बोलता था
जिनमें काबुल-कंधार बोलता था,
और जिनमें
पूरी तीसरी दुनिया बोलती थी
सबसे क्रूर शहंशाह के खिलाफ ।

सुनो! हमारे वक़्त के बादशाह !
तमाम बेवाओं और यतीमों
की आवाज़,
कि बहुत खामोश मुल्कों की सड़कों पर
जब कोई नहीं बोलता
तो सिर्फ जूते बोलते हैं।

15 November 2009

इसी खोखलेपन के साथ हम आसानी से सांस्कृतिक गुलामी के लिए तैयार हो जाते हैं।

आज साम्राज्यवादी देशों को सीधे किसी देश में सेना भेज कर उसे अपना उपनिवेश बनाने की ज़रूरत नहीं है। यह भी किया जा सकता है किंतु बहुत ही ज़रूरी हो तब। उससे आसान तरीका है कि उस देश को सांस्कृतिक गुलामी का एहसास कराया जाए। उसे यह बता दिया जाए कि उसकी संस्कृति से हमारी संस्कृति श्रेष्ठ है। मिथकों का गढा जाना भी साम्राज्यवादी तरीका है जैसे ब्रिटिश उपनिवेश ने मिथक गढा था कि उसके राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता है, वह अजेय है। उसकी संस्कृति, उसकी भाषा ही श्रेष्ठ है, हमारी देशज भाषा, हमारी देशज संस्कृति,सब गंवार और पिछडेपन की शिकार है।


हम काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही स्वाद ,एक ही तरह के जूते, एक ही तरह के कपडों के अभ्यस्त हो जाते हैं। यह एकरूपता हमें गुलाम भी बना रही है, हमें यह ख़याल भी नहीं आता।

साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए ही हिन्दी और उर्दू का विवाद पैदा किया गया,जबकि लिपि की भिन्नता के बावजूद दोनों एक थीं। इसी के आधार पर द्वि-राष्ट्र का फार्मूला तय किया गया। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की मार ऐसी ही है । मीडिया भी इसी काम में लगा है। वो हमें निरर्थक कार्यक्रमों में इतना उलझा देता है की हमें अपने खोखलेपन का एहसास भी नहीं होता। इसी खोखलेपन के साथ हम आसानी से सांस्कृतिक गुलामी के लिए तैयार हो जाते हैं।

08 November 2009

किसान समय - क्या ये साइलेंस ऑफ़ वायलेंस नहीं?

क्या हम भूमंडलीकरण के दौर में अपने गाँव से इतने दूर हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश की दुहाई देते -देते हमारी स्मृतियों से हल-बैल का ही लोप हो रहा है। हमारे कथा साहित्य से किसान धीरे-धीरे गायब हो रहा है।

पिछले दिनों प्रकाशित उपन्यासों में से शिवमूर्ति के "आख़िरी छलांग" के अलावा कोई महत्त्वपूर्ण उपन्यास नहीं दिखता। कहानियों में ज़रूर स्थिति कुछ कम निराशाजनक है। कहानी की समकालीन पीढ़ी बहुत अच्छी कहानियाँ देने के बावजूद किसान प्रश्नों पर चुप है। उसमें ईमेल-शी-मेल से लेकर सोने का सूअर होते हुए सनातन बाबू का दाम्पत्य तक सब कुछ है सिवाय किसान प्रश्नों के।

क्या हमारे कंसर्न से ही किसान गायब है? विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड तक किसानों की आत्महत्याएं क्या हमें आंदोलित नहीं करतीं? मुक्त बाज़ार से लेकर दलित और स्त्री विमर्श करने वाले हमलोग क्या सचमुच आत्मरति के शिकार हैं? जबकि मुक्त बाज़ार के मसीहा खाद्यान्न का कोई विकल्प नहीं ढूंढ सके हैं ऐसे में सचमुच सृजन करने वाले किसान के पक्ष में न बोलना हमारे समय में गद्दारी नहीं? सुधा के शब्द उधार लेकर कहें तो क्या ये साइलेंस ऑफ़ वायलेंस नहीं?


कुछ भी हो सर्वाधिक संकट यदि किसानों पर है तो यह भी तय है कि इस रक्तपिपासु दौर में प्रतिरोध का रास्ता भी किसानों से होकर ही जाता है । वैश्विक गाँव के रहनुमा भारत के गाँव को ज्यादा नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते। अधिग्रहण के ज़रिये ज़बरन किसानों की भूमि हथिया कर वे न तो सब को काम दे सकते हैं और न ही सब किसानों के जीवनयापन का जिम्मा ले सकते हैं। वे किसान को भूमिहीन कर उसे मजदूर और बेरोजगार बना देने पर आमादा हैं। इसीलिये किसानों के प्रतिरोध को सलाम करते हुए मैं इस बेतुके समय को 'किसान समय' कहता हूँ।

30 October 2009

यह जो चाबुक है यह नियंत्रक है ,ख़ुद का भी तथा औरों का भी।

हम भी हैं ब्लॉग के मैदान में; लेकर अपनी चाबुक ! 


 यह जो चाबुक है यह नियंत्रक है ,ख़ुद का भी तथा औरों का भी। 
हमारे समय की विडम्बना भी यही है कि एक अदृश्य चाबुक हवा में लहराता है और हमारे सपनों से लेकर हमारे यथार्थ के घोडों तक की नंगी पीठ पर सटाक से पड़ता है और उधडी हुई पीठ से ढेर सा खून बह निकलता है। चाबुक के बहाने ही हम हम ब्लॉग की दुनिया में आत्मनियंत्रण ले कर आए हैं।