हम बात करते हैं उत्तर आधुनिकता की लेकिन क्या हम पूरी तरह आधुनिक भी हो सके हैं? हम सदियों पुराने कर्मकांड , रूढ़ियों और शोषण की परम्परा का सगर्व निर्वहन करते हुए गणेश जी को दूध पिला कर संतृप्त हो जाते हैं। हम बाबरी मस्जिद का विध्वंस अपने मध्ययुगीन बदले के लिए करते हैं, जिसके साक्ष्यों की सत्यता ही संदिग्ध है। हम मनुष्य की कीमत पर पशु की रक्षा का संकल्प लेते हैं, धर्म का जयकारा लगाते हैं । हम स्त्रियों और दलितों को गुलाम बनाए रखते हुए थोड़ी -सी कृपा करना करना चाहते हैं। हम उन्हें दया का पात्र ही बने रहने देना चाहते हैं।
हम एक ऐसे लोकतान्त्रिक महादेश में निवास करते हैं, जहाँ सीना ठोंक कर अपने जनतांत्रिक होने का दम भरा जाता है। जनतंत्र की स्तुति करते-करते हम दूसरे धर्म के अनुयायियों तथा अपने धर्मं के कथित अन्त्यजों के साथ सामंतों सरीखा व्यवहार करते हैं। अपनी सठियाई हुई आज़ादी का उत्सव मनाते हुए हम भूल जाते हैं कि हम अब तक गावों में बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं पहुंचा पाये हैं। हम आज भी मानसिक तौर पर गुलाम बने हैं। हम औपनिवेशिकता को ही जीते हुए अपने को आधुनिक समझते हैं। अब हम मुक्त बाज़ार व्यवस्था में जी कर गलोबलाइज़ होने के अहंकार से ग्रस्त हैं जबकि हम लोकलाइज़ होने में भी शर्म महसूस करते हैं।
दरअसल, हम किसी भी नयी यूरोपियन अवधारणा को तुरंत गपक और लपक लेने के आदी हैं। उन्हें आधुनिक हुए काफी दिन हो गए। अब उनके पूंजीवाद को नई अवधारणाओं के साथ ही साथ अपने विस्तार की नयी -नयी योजनायें चाहिए। पूँजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद है। अब नव- साम्राज्यवाद रूप बदल कर हमारे सामने प्रस्तुत है। संस्कृति हमेशा ही साम्राज्यवाद की परियोजना का हिस्सा रही है। साम्राज्यवाद पहले बताता है कि हम सचमुच कितने पिछड़े हुए है। फ़िर वह हमारे इतिहास, हमारी भाषा को पिछड़ा बताता है। वह अपनी श्रेष्ठता के मिथक गढ़ता है। नव - साम्राज्यवाद इतिहास के अंत , विचारधारा के अंत और उपन्यास के अंत की घोषणाएं करता है। वह शब्द और अर्थ के अभिन्न होने का खंडन करता है। कुल मिलाकर यह जो उत्तर - आधुनिकता है यह साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक तर्क है। इसीलिये उत्तर - आधुनिकता को व्याख्यायित न कर पाने की चतुराई अथवा विवशता इसे ब्रह्म की तरह अबूझ बना देती है।
हिन्दी में धडाधड उत्तर- आधुनिकता पर किताबें लिखी जाने लगीं जो और भी अबूझ रही हैं। तुरत - फुरत उत्तर - आधुनिक उपन्यास लिखे जाने लगे । बने - बनाए फोर्मुले पर लेखन आधारित हो कर महान होने लगा। बेचारा हिन्दी का पाठक गैर आधुनिक स्थितियों में रह कर उत्तर - आधुनिक बनने के लिए अभिशप्त अपना सर पीट रहा है।