26 November 2009

दो जूते



ये एक जोड़ी जूते थे,
अपने वतन की
मिट्टी से सने हुए,
और अंखुआए हुए
आक्रोश की तरफ से
तने हुए,
जो उपज रहा था
दुनिया के सबसे ताकतवर
आदमी के खिलाफ ।

ये सिर्फ एक जोड़ी जूते थे,
तमाम नंगे पांवों की
बारूद पर चलने की
बेबसी के खिलाफ ।

ये सिर्फ एक जोड़ी जूते थे,
अल-असगर
और कर्बला को याद करते हुए
एक आवाज थी इन जूतों की
जिनमें मक्का बोलता था
जिनमें बगदाद बोलता था
जिनमें काबुल-कंधार बोलता था,
और जिनमें
पूरी तीसरी दुनिया बोलती थी
सबसे क्रूर शहंशाह के खिलाफ ।

सुनो! हमारे वक़्त के बादशाह !
तमाम बेवाओं और यतीमों
की आवाज़,
कि बहुत खामोश मुल्कों की सड़कों पर
जब कोई नहीं बोलता
तो सिर्फ जूते बोलते हैं।

1 comment:

  1. वाह जी वाह!!
    आज भी समसामयिक है यह रचना!(पुरानी सी लगती है ना इसलिए)

    जाहिर है क्रूर शहंशाहों के लिए और शायद उनके खिलाफ ऐसे जूते आज भी बोलने चाहिए ? वैसे ब्लॉग जगत में जूतों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है ......सो उसी जूता श्रृंखला में आपका भी स्वागत है |

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