08 November 2009

किसान समय - क्या ये साइलेंस ऑफ़ वायलेंस नहीं?

क्या हम भूमंडलीकरण के दौर में अपने गाँव से इतने दूर हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश की दुहाई देते -देते हमारी स्मृतियों से हल-बैल का ही लोप हो रहा है। हमारे कथा साहित्य से किसान धीरे-धीरे गायब हो रहा है।

पिछले दिनों प्रकाशित उपन्यासों में से शिवमूर्ति के "आख़िरी छलांग" के अलावा कोई महत्त्वपूर्ण उपन्यास नहीं दिखता। कहानियों में ज़रूर स्थिति कुछ कम निराशाजनक है। कहानी की समकालीन पीढ़ी बहुत अच्छी कहानियाँ देने के बावजूद किसान प्रश्नों पर चुप है। उसमें ईमेल-शी-मेल से लेकर सोने का सूअर होते हुए सनातन बाबू का दाम्पत्य तक सब कुछ है सिवाय किसान प्रश्नों के।

क्या हमारे कंसर्न से ही किसान गायब है? विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड तक किसानों की आत्महत्याएं क्या हमें आंदोलित नहीं करतीं? मुक्त बाज़ार से लेकर दलित और स्त्री विमर्श करने वाले हमलोग क्या सचमुच आत्मरति के शिकार हैं? जबकि मुक्त बाज़ार के मसीहा खाद्यान्न का कोई विकल्प नहीं ढूंढ सके हैं ऐसे में सचमुच सृजन करने वाले किसान के पक्ष में न बोलना हमारे समय में गद्दारी नहीं? सुधा के शब्द उधार लेकर कहें तो क्या ये साइलेंस ऑफ़ वायलेंस नहीं?


कुछ भी हो सर्वाधिक संकट यदि किसानों पर है तो यह भी तय है कि इस रक्तपिपासु दौर में प्रतिरोध का रास्ता भी किसानों से होकर ही जाता है । वैश्विक गाँव के रहनुमा भारत के गाँव को ज्यादा नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते। अधिग्रहण के ज़रिये ज़बरन किसानों की भूमि हथिया कर वे न तो सब को काम दे सकते हैं और न ही सब किसानों के जीवनयापन का जिम्मा ले सकते हैं। वे किसान को भूमिहीन कर उसे मजदूर और बेरोजगार बना देने पर आमादा हैं। इसीलिये किसानों के प्रतिरोध को सलाम करते हुए मैं इस बेतुके समय को 'किसान समय' कहता हूँ।

3 comments:

  1. विवेक जी !
    पहली पोस्ट के बाद आप का चाबुक ........यकीनन उन मुद्दों की बात कर रहा है ; जिन्हें आज हम दरकिनार कर रहे हैं | किसानों के आज के हालातों पर व्यथित कर देने वाला आपका लेख मन को छू गया | जरूरत है कि आज सभी के लिए किसान मुद्दा बने | आजादी के इतने सालों के बाद भी उस किसान की दशा में सुधार नहीं ला पाए तो हम सब ही तो जिम्मेदार हैं?

    आज किसानो की इतनी मौतों के बाद भी किसान और इसकी समस्याएं मुद्दा क्यों नहीं बन पाए ?? यह प्रश्न मेरे लिए आज भी अनुत्तरित है |

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  2. नया ब्लाग शुरु करने की बधाई। आपकी बात सही है। किसानों की लम्बे समय तक उपेक्षा खतरनाक ही है।

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  3. कथा साहित्य से ही नहीं हर विधा से किसान को ष्ड़यंत्र पूर्वक गायब किया जा रहा है लेकिन इसका दुष्परिणाम भुगतने के लिये भी हमे तैयार रहना है ।
    नये ब्लॉग की बहुत बहुत बधाई ।
    शरद कोकास , दुर्ग छ.ग.
    मेरे 5 ब्लॉग्स भी देखना - http://sharadakokas.blogspot.com

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